इस साल का मानसून मध्यप्रदेश के लिए उम्मीद से कहीं ज़्यादा उदार साबित हुआ। बरसात की हर बूँद ने सूखी धरती को नया जीवन दिया, खेतों को लहलहाती फसलों से भर दिया और जंगलों में फिर से हरियाली लौटा दी। मौसम विभाग के आँकड़े बताते हैं कि 1 जून से 8 सितंबर के बीच पूरे राज्य में औसतन 1048.2 मिलीमीटर वर्षा हुई, जबकि सामान्य औसत 848.1 मिलीमीटर है। यानी यह सीजन लगभग 24 प्रतिशत अधिशेष रहा।
इस अतिरिक्त वर्षा का असर केवल आँकड़ों तक सीमित नहीं है। गाँवों में किसानों की मुस्कान गवाही देती है कि खेतों को पर्याप्त पानी मिला, तालाब और कुएँ भरे और नहरों में पानी बहने लगा। जिन इलाकों में पिछले साल सूखा छाया था, वहाँ इस बार खेत हरे-भरे कालीन जैसे दिख रहे हैं।
सबसे खास बात यह रही कि बारिश का वितरण अपेक्षाकृत संतुलित रहा। अक्सर ऐसा होता है कि प्रदेश का पूर्वी भाग ज्यादा भीगता है और पश्चिमी भाग सूखा रह जाता है। लेकिन इस बार पूर्व में 1103.6 मिलीमीटर और पश्चिम में 1005.7 मिलीमीटर बारिश दर्ज हुई। इस तरह दोनों हिस्सों ने बराबरी से राहत महसूस की।खेती पर इसका गहरा असर पड़ा। सोयाबीन, धान और दालों जैसी प्रमुख खरीफ फसलें इस बार अच्छी स्थिति में हैं। खेतों में पानी की उपलब्धता से पैदावार बढ़ने की उम्मीद है। किसान बताते हैं कि समय पर आई बारिश ने उन्हें सिंचाई पर अतिरिक्त खर्च से बचा लिया। हालांकि, अधिशेष बारिश के कारण कई जगहों पर जलभराव भी हुआ, जिससे पौधों की जड़ें सड़ने और रोग फैलने का खतरा बढ़ गया। “बारिश का यह दौर अगर और लंबा खिंचता तो फसल डूब जाती,” सिवनी जिले के किसान राकेश पटेल बताते हैं। यह स्थिति किसानों की उस चिंता को भी उजागर करती है कि अधिकता कभी-कभी उतनी ही नुकसानदायक हो सकती है जितनी कमी।
बारिश ने न केवल खेतों को बल्कि जंगलों और वन्यजीवों को भी राहत दी। पेंच, सतपुड़ा और कान्हा जैसे टाइगर रिज़र्व में जलस्रोत लबालब हैं। इस वजह से बाघ और अन्य जंगली जीवों को पानी की कमी नहीं है। जंगलों में नए पौधे उग रहे हैं और वनस्पति की वृद्धि ने पर्यावरण का संतुलन मजबूत किया है। नर्मदा, बेतवा और चंबल जैसी नदियाँ भी इस समय पूरे प्रवाह में बह रही हैं।
जिलों की बात करें तो तस्वीर और भी रोचक हो जाती है। कई जिलों में बारिश ने सभी रिकॉर्ड तोड़ दिए। श्योपुर जिले में सामान्य से 134 प्रतिशत अधिक वर्षा हुई। गुना जिले में तो स्थिति और भी चौंकाने वाली रही— यहाँ 1645.6 मिलीमीटर पानी गिरा, जो सामान्य से लगभग दोगुना है। शिवपुरी में 94 प्रतिशत और अशोकनगर व निवाड़ी में 80 प्रतिशत अधिशेष दर्ज किया गया। इन जिलों के खेत, तालाब और नदियाँ इस समय भरे हुए हैं और किसान उत्साह से अगली फसल की तैयारी कर रहे हैं।
लेकिन हर जगह तस्वीर इतनी उजली नहीं रही। बेतूल में 9 प्रतिशत, शाजापुर में 17 प्रतिशत, उज्जैन में 6 प्रतिशत और सीहोर में 4 प्रतिशत कम बारिश हुई। इन जिलों के किसानों को चिंता है कि कहीं सिंचाई के लिए पानी की कमी फिर से न उभर आए। यह असमानता साफ बताती है कि जलवायु परिवर्तन के दौर में बारिश का स्वरूप लगातार अनिश्चित होता जा रहा है।
अधिशेष मानसून ने अवसरों के साथ कई चुनौतियाँ भी दीं। ग्रामीण इलाकों में बाढ़ और मिट्टी के कटाव से कच्चे मकान और सड़कें क्षतिग्रस्त हुईं। शहरी क्षेत्रों में नालियाँ चोक हो जाने से जगह-जगह जलभराव देखने को मिला। भोपाल और इंदौर जैसे शहरों में लोग जहाँ एक ओर ठंडी हवाओं और सुहावने मौसम का आनंद उठा रहे थे, वहीं दूसरी ओर गंदे पानी और मच्छरों से परेशान भी हुए। स्वास्थ्य विशेषज्ञ चेतावनी दे रहे हैं कि इस स्थिति में डेंगू और मलेरिया जैसी बीमारियों का खतरा बढ़ सकता है।
पर्यावरणविद मानते हैं कि इस अधिशेष वर्षा का सबसे महत्वपूर्ण पहलू यह है कि इसे सहेज कर कैसे रखा जाए। अगर सरकार और समाज मिलकर वर्षा जल संचयन, बाढ़–रोधी ढाँचे और जलवायु–स्मार्ट खेती तकनीकें अपनाएँ तो यह पानी आने वाले सालों तक उपयोगी रह सकता है। इस तरह की रणनीति से राज्य न केवल सूखे की समस्या से निपट पाएगा बल्कि भविष्य के लिए भी जल सुरक्षा सुनिश्चित कर सकेगा।
इस मानसून ने लोगों को राहत, उम्मीद और साथ ही चेतावनी भी दी है। किसानों की आँखों में उम्मीद की चमक है, वनकर्मियों के लिए जंगलों का जीवन लौट आया है और शहरवासियों के लिए मौसम सुहाना हो गया है। लेकिन इस पूरी कहानी में सबसे बड़ा संदेश यही है कि प्रकृति का आशीर्वाद तभी टिकाऊ हो सकता है जब हम उसे सही ढंग से सहेजना और सँभालना सीखें।
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