सुप्रीम कोर्ट ने सारंडा वन को घोषित किया वन्यजीव अभयारण्य

नई दिल्ली

गुरुवार को सुप्रीम कोर्ट ने झारखंड के सारंडा वन पर एक अहम फैसला सुनाया है। कोर्ट ने झारखंड सरकार को सारंडा वन क्षेत्र के 314 वर्ग किमी क्षेत्र को वन्यजीव अभयारण्य के रूप में अधिसूचित करने का निर्देश दिया है।

यह मामला काफी समय से लंबित था, जिसपर कोर्ट ने अपना अहम निर्णय लेते हुए राज्य सरकार को इस आदेश का पूरा करने के लिए तीन महीने का समय दिया है। हालांकि कोर्ट के इस फैसले से स्थानीय आदिवासी समुदाय मे नाराजगी है।

क्या रहा कोर्ट का अहम फैसला

सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश बी.आर. गवई और न्यायमूर्ति के. विनोद चंद्रन की पीठ ने गुरूवार को इस मामले की सुनवाई करते हुए यह महत्वपूर्ण फैसला सुनाया। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि राज्य सरकार अपने इस कर्तव्य से पीछे नहीं हट सकती, क्योंकि उसने पहले भी इस क्षेत्र को अभयारण्य घोषित करने पर सहमति जताई थी।

यह आदेश राष्ट्रीय उद्यानों और वन्यजीव अभयारण्यों के एक किलोमीटर के दायरे में खनन गतिविधियों पर प्रतिबंध लगाने के सुप्रीम कोर्ट के व्यापक निर्देश के बाद आया है। अदालत ने जोर देकर कहा कि पर्यावरण संरक्षण आवश्यक है और इस क्षेत्र में अवैध खनन की अनुमति नहीं दी जा सकती।

काफी वक्त लंबित था यह मामला

सारंडा, जिसका शाब्दिक अर्थ ‘सात सौ पहाड़ियाँ’ है, झारखंड के पश्चिमी सिंहभूम जिले में स्थित एक घना और पारिस्थितिक रूप से समृद्ध वन है, जो अपने लौह अयस्क भंडार के लिए भी जाना जाता है। यह क्षेत्र कभी सरायकेला के पूर्व शासकों का निजी शिकारगाह था।

इस क्षेत्र को वन्यजीव अभयारण्य घोषित करने का मामला पिछले कई वर्षों से लंबित था। स्थानीय आदिवासी समुदाय और खनन उद्योग, दोनों की अपनी-अपनी चिंताएँ थीं। आदिवासियों ने अभयारण्य घोषित करने का विरोध करते हुए जन आक्रोश रैलियाँ निकालीं, क्योंकि उन्हें अपने पारंपरिक अधिकारों और आजीविका पर प्रभाव पड़ने की आशंका थी। दूसरी ओर, पर्यावरणविदों ने क्षेत्र के अद्वितीय वन्यजीवो और जैव विविधता के संरक्षण की आवश्यकता पर बल दिया।

हालांकि, सुप्रीम कोर्ट पूरे सारंडा वन को वन्यजीव अभयारण्य के रूप मे चिन्हित करना चाहता था। जिसपर राज्य सरकार ने कोर्ट से पूरे सारंडा वन (820 वर्ग किमी) मे से केवल 314 वर्ग किमी क्षेत्र को अभयारण्य के रूप में अधिसूचित करने की अनुमति मांगी, जिस पर सुप्रीम कोर्ट ने सहमति दे दी।

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The Forest Times
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