देहरादून (उत्तराखंड)
उत्तराखंड में लगातार बढ़ रहा मानव-वन्यजीव संघर्ष अब एक गंभीर राजनीतिक मुद्दा बन चुका है। जंगली जानवरों, विशेषकर गुलदार, भालू और हाथियों के हमलों में बढ़ती जनहानि और संपत्ति के नुकसान ने ग्रामीणों में भारी आक्रोश पैदा कर दिया है, जिसका सीधा असर राज्य की सियासत पर दिख रहा है। सत्ताधारी पार्टी और विपक्षी दल इस संवेदनशील मुद्दे पर आमने-सामने हैं, और दोनों एक-दूसरे पर नाकामी का आरोप लगा रहे हैं।
तीव्र गति से बढ़े है मानव-वन्यजीव संघर्ष के मामले
मानव-वन्यजीव संघर्ष उत्तराखंड के लिए कोई नया मुद्दा नहीं है, लेकिन हाल के महीनों में इसकी तीव्रता चिंताजनक रूप से बढ़ी है। आंकड़ों के अनुसार, पिछले तीन वर्षों में 100 से अधिक लोग वन्यजीवों के हमलों का शिकार हो चुके हैं। कई गांवों में लोग दहशत के साये में जीने को मजबूर हैं, और कुछ क्षेत्रों में तो ग्रामीणों ने चुनावों के बहिष्कार तक की चेतावनी दी है। यह स्थिति दर्शाती है कि यह मुद्दा स्थानीय स्तर पर कितना बड़ा है।
विशेषज्ञों का मानना है कि वनों के सिकुड़ते प्राकृतिक आवास, जंगल की आग, और मानव बस्तियों का जंगलों की ओर विस्तार इस संघर्ष को बढ़ा रहा है। भोजन और आश्रय की तलाश में जानवर अक्सर मानव बस्तियों में घुस आते हैं, जिससे टकराव की स्थिति पैदा होती है।
चल रही है सियासती दांव-पेच
राज्य सरकार, मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी के नेतृत्व में, इस समस्या के समाधान के लिए तत्परता दिखाने का प्रयास कर रही है। हाल ही में हुई कैबिनेट बैठक में मानव-वन्यजीव संघर्ष में मारे गए व्यक्तियों के आश्रितों के लिए मुआवजे की राशि को ₹10 लाख तक बढ़ाने का महत्वपूर्ण फैसला लिया गया है। इसके अलावा, सरकार ने जंगली जानवरों के हमले में घायल हुए लोगों का पूरा चिकित्सा खर्च वहन करने की भी घोषणा की है।
इन प्रशासनिक कदमों के बावजूद, विपक्ष सरकार पर हमलावर है। विपक्ष का आरोप है कि सरकार केवल घोषणाएं कर रही है, लेकिन जमीनी स्तर पर स्थिति जस की तस बनी हुई है। विपक्षी नेताओं का तर्क है कि मुआवजे की राशि बढ़ाना एक अच्छा कदम हो सकता है, लेकिन यह समस्या का स्थायी समाधान नहीं है। गांवों में सुरक्षा के पुख्ता इंतजाम नहीं हैं और वन विभाग के प्रयास नाकाफी साबित हो रहे हैं।
स्थायी समाधान की मांग तेज
इस मुद्दे ने पूर्व में चुनावों को भी प्रभावित किया है, जब नाराज ग्रामीणों ने मतदान में भाग लेने से इनकार कर दिया था। इस राजनीतिक दबाव को समझते हुए, सरकार अब कुछ प्रायोगिक परियोजनाओं पर भी काम कर रही है, जिसके तहत प्रभावित गांवों को चिह्नित कर सामुदायिक भागीदारी के माध्यम से समाधान तलाशे जाएंगे।उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने भी इस गंभीर विषय पर संज्ञान लिया है और सरकार से समाधान के लिए सुझाव मांगे हैं।
यह स्पष्ट है कि जब तक मानव और वन्यजीवों के बीच सह-अस्तित्व के प्रभावी मॉडल विकसित नहीं किए जाते, यह मुद्दा उत्तराखंड की सियासत में गर्माता रहेगा। स्थायी समाधान के लिए जागरूकता अभियान, पर्यावास सुधार और प्रभावी सुरक्षा उपायों को लागू करने की तत्काल आवश्यकता है।
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