पहले जो हुआ करते थे शिकारी, आज वो है वन्यजीव रक्षक

असम

असम का विश्व धरोहर स्थल मानस राष्ट्रीय उद्यान, जो एक समय उग्रवाद और बड़े पैमाने पर शिकार के कारण तबाही के कगार पर पहुँच गया था, आज संरक्षण की एक अनूठी और प्रेरणादायक कहानी पेश कर रहा है।

यह चमत्कार किसी सरकारी पहल या बड़ी एजेंसी के कारण नहीं, बल्कि स्थानीय बोडो समुदाय के पूर्व शिकारियों और युवाओं के प्रयासों से संभव हुआ है, जिन्होंने बंदूकें छोड़कर वन्यजीवों के रक्षक बनने का फैसला किया।

तबाही का दौर

1980 के दशक के अंत और 90 के दशक की शुरुआत में, बोडोलैंड राज्य की मांग को लेकर हिंसक अलगाववादी आंदोलन के कारण मानस का नाजुक पारिस्थितिकी तंत्र बुरी तरह प्रभावित हुआ। सुरक्षा बलों और विद्रोहियों के बीच लगातार झड़पों ने पार्क में अराजकता का माहौल पैदा कर दिया।

सरकारी अधिकारी और वन रक्षक भी जंगल में जाने से कतराते थे, जिसका फायदा उठाकर विद्रोहियों और स्थानीय लोगों ने बड़े पैमाने पर जानवरों का शिकार और तस्करी शुरू कर दी। एक सींग वाले गैंडे, बाघ, जैसी कई लुप्तप्राय प्रजातियों की आबादी लगभग खत्म हो गई, जिसके कारण यूनेस्को ने 1992 में मानस को ‘खतरे में पड़ी विश्व धरोहर’ सूची में डाल दिया।

बदलाव की बयार

दो दशकों से अधिक समय तक चली अशांति के बाद, 2003 में शांति समझौते ने इलाके में स्थिरता लाई। इस शांति के साथ ही स्थानीय समुदाय में जंगल और उसके वन्यजीवों को बचाने की इच्छा जागी। उन्होंने महसूस किया कि जंगल का विनाश अंततः उनके अपने भविष्य को भी खतरे में डाल रहा है। इसी मोड़ पर, कई पूर्व शिकारियों और स्थानीय युवाओं ने एक साथ आकर वन्यजीव संरक्षण का बीड़ा उठाया।

इनमें से कई लोगों ने, जैसे महेश मसुमातारी, जो कभी गैंडों का शिकार करते थे, अपने तरीकों को पूरी तरह बदल दिया। उन्होंने छोटे समूह बनाए और स्वयंसेवी के रूप में गश्त शुरू की। इन प्रयासों को गैर-लाभकारी संगठनों, जैसे आरण्यक और मानस माओज़िगेंड्री इकोटूरिज्म सोसाइटी, का समर्थन मिला, जिन्होंने उन्हें प्रशिक्षण, उपकरण और वैकल्पिक आजीविका के साधन प्रदान किए, जैसे कि होमस्टे संचालन और इको-टूरिज्म।

सामुदायिक संरक्षण मॉडल

पूर्व शिकारियों का यह कदम एक सफल सामुदायिक संरक्षण मॉडल बन गया। वे न केवल प्रभावी संरक्षक साबित हुए क्योंकि उन्हें जंगल का चप्पा-चप्पा पता था, बल्कि वे अपने समुदायों में दूसरों को भी शिकार छोड़ने के लिए प्रेरित करने में सक्षम रहे। उन्होंने स्थानीय लोगों को मानव-पशु संघर्ष को कम करने और प्रकृति के साथ सामंजस्य बिठाकर रहने के बारे में जागरूक किया।

मानस का पुनरुद्धार

इन अथक प्रयासों के परिणामस्वरूप, मानस राष्ट्रीय उद्यान फिर से हरा-भरा हो गया और वन्यजीवों की आबादी में उल्लेखनीय वृद्धि हुई। गैंडों और बाघों की संख्या में इज़ाफ़ा हुआ, और 2011 में यूनेस्को ने मानस को ‘खतरे में पड़ी’ सूची से हटा दिया। आज, मानस 60 से अधिक स्तनपायी, 42 सरीसृप और 500 से अधिक पक्षी प्रजातियों का घर है।

यह कहानी दर्शाती है कि जब स्थानीय समुदाय संरक्षण प्रयासों की बागडोर संभालते हैं, तो सबसे गंभीर रूप से क्षतिग्रस्त पारिस्थितिकी तंत्र भी फिर से पनप सकते हैं। पूर्व शिकारियों से संरक्षक बने इन लोगों ने साबित कर दिया है कि भागीदारी और सशक्तिकरण के माध्यम से स्थायी बदलाव संभव है।

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The Forest Times
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